Friday, February 25, 2011

माँ बड़ी हो गयी


वक़्त

हम बच्चों की मुठ्ठी से

रेत की तरह फिसलता गया ..

हम पलते गए ..

हमारे पलने-पालने के फेर में

पता ही नहीं चला

कब माँ बड़ी हो गई

और वो साठ की दहलीज पर गई .

सुनते आये थे

और यकीन भी पाले थे

कि माँ

उम्र- चोर है ..

हम मुगालते में पड़े रहे

अपनी-अपनी फ़रमाइश करते रहे

खेलते रहे उससे

खींचते रहे उसे

कभी ध्यान ही नहीं दिया

कब माँ बड़ी हो गई

और वो साठ की दहलीज पर गई .

चलो,

अब हम उससे और शरारत करेंगे

चिढ़ाएंगें ---कहेंगे

माँ, हमारी सठियाई माँ ...

वो वहीँ टीवी के सामने से

सोफे पे पसरे- पसरे

रिमोट खींच कर मारेगी

मुस्कुराएगी....

बस...ऐसे ही चलता रहेगा ..

वो बड़ी होती रहेगी

पार करती रहेगी

खरामा -खरामा

दहलीज दर दहलीज़ .....

हमारे देखते देखते .

Tuesday, December 15, 2009

कुछ तेरा-कुछ मेरा

खुलते हैं ख्वाब मेरे आँखों में तेरी

बहती हैं धड़कने मेरी सांसों में तेरी

बनती हैं तकदीर मेरी हथेलियों में तेरी

बसती हैं तमन्नाएँ मेरी दुआओं में तेरी.....

Tuesday, November 10, 2009

मुक्ति

तुम

अरसे अरसे बाद हँसते हो.

जब भी हँसते हो

तो लगता है

जैसे

रूह खनकती है कोई,

जैसे,

कोई सांई आए

और एक गलती माफ़ कर जाए.

Thursday, October 8, 2009

पहली तह

मैंने पूछा था
बादलों की गड़गड़ाहट से
हवाओं की सनसनाहट से
पेड़ों की छटपटाहट से
आँचल की सरसराहट से,
और पूछा था
गीली सूखी मिटटी से
भीगती बारिश से
मचलते चाँद से
झपकते तारों से,
कि
कब थमोगे तुम सब?
यूँ की
ढूँढने थे मुझे,
हमारे तुम्हारे कदमों के निशान
जो चले थे कुछ दूर साथ-साथ
जो दब गए थे एक युग बीते
वहां
पगडंडियों पर सूखे पत्तों के नीचे,
और
यहाँ
मन की पहली तह के नीचे.

Wednesday, September 2, 2009

माइल स्टोन

नापी थी
मिलायी थीं
रेखाएं तकदीर कीं
और
जड़ी थी एक निशानी तुमने
जीवन रेखा पे मेरी.
निशानी
याके लम्स तुम्हारे होंठों का
राह मैं एक माइल- स्टोन
जैसे बताता हुआ
अभी- अभी
यहाँ से
साथ हुआ है
एक हमसफ़र मेरे.

Monday, August 24, 2009

कारीगिरी







आज बारिश हुई है

एक मौसम बदल गया है

मेरे मन की स्लेट पर

कोई अपना नाम लिख गया है.

कोलाज















सच,

बड़ी
हसरत से एक कोलाज बनाया है,

बिखरे हुए लम्हों को चुन-चुन कर सजाया है,

यादों
की थोड़ी लेई घोली है

और

मन
की दीवार पर उसे चिपकाया है,

अब

सुकून पांव पसारे पड़ा है.








Sunday, April 12, 2009

मोटिवेशनल फैक्टर

वो एक सरकारी योजना में गाँव के लिए स्वास्थय कार्यकर्ता बन गई थी। अपना ही गाँव, वहीं रहना और कामकरना, जितना करना उतना पैसा मिल जाना। इससे अच्छा और क्या था। वैसे भी कपड़े सिलते - सिलते, लोगों केघरों में काम करते हुए अपना और तीन बच्चों का पेट पालना सरल तो नहीं था, जो इस काम को करने काफैसला क्या सही रहता ? आदमी तो कब का छोड़ कर भाग गया था...

ट्रे
निंग ले ली थी। काम शुरू कर दिया था। करना क्या था , बस यही की जिनके ज़्यादा औलाद हो उनको नसबंदीकराने के लिए कहना और ले भी जाना या कभी- कभी जचगी की औरत को अस्पताल में बच्चा पैदा करने के लिएकहना और साथ जाना वैसे ये इतना भी सरल काम था, फिर भी हाँ कर दी और काम शुरूकर दिया था। लोगोंको समझाते, उनके पीछे पड़ते- पडाते ,करते- कराते तीन साल बीत गए। पैसा भी आने लगा और धीरे- धीरे कामपर पकड़ बन गई

जिले पर कुछ एम बी करे अधिकारी लोगों की भरती हो गई थी जिससे सरकारी काम में कुछ काम दिखे। उनलोगों ने अच्छा काम करने वालों की खोज शुरू कर दी। या ऐसा कहें की कुछ केस स्टडीज की बात होने लगी थी।ऐसे ही लोगों की गिनती में वो भी गई। उससे पूछा गया की उसने क्या- क्या किया? पता चला की बहुत नसबंदीकराई हैं। बात ऊपर तक पहुँची। ऊपर वाले भी सोच में पड़ गए। रेकॉर्ड्स की जांच के लिए कहा गया। कई- कईतरह के लोग उस तक आने लगे। उसका फ़ोन नम्बर भी लोगों तक पहुँच गया.

एक दिन बड़ी महिला अधिकारी का
फ़ोन गया। अधिकारी महिला ने पूछा ,' कितने केस किए ?
दो सो के लगभग .... साहब ... साहब .....आप किसलिए सवाल कर रहे हैं..... मैंने अपने कुछ केस बाँट
दिए थे....नर्सको भी दे दिए थे... कोई ग़लत काम कर दिया है क्या..... साहब मैं लोगों को घर तक छोड़ कर आती हूँ.. ऑपेरशन केबाद भी उनका पूरा ख्याल रखती हूँ..... मैं बस औलाद का पेट पाल रही हूँ .. सच कहूं रही हूँ .... अब क्या करती .. जब एक केस पे पैसे मिले , लालच गया ... फिर दो फिर तीन ... पैसे मिलते गए... लालच बढता गया... आप जोकहेंगी कर दूँगी ...."

उसकी आवाज़ में याचना गई थी जैसे कोई गुनाह हो गया हो। उसे क्या पता था की उसके पेट की आग ने उससेवोकरवा
दिया था जिसे की अचिएवेमेंट कहा गया वो तो बस लालच में करती जा रही यही लालच उसकामोटिवेशनल फैक्टर बन गया था और वो केस पे केस बढाती जा रही थी मैनेजमेंट ज्ञानी लोग 'मोटिवेशन ' केसिद्धांतों में उलझ रहे थे

नसीहत

वक़्त हुआ
कोई खेल नहीं खेला ...

चलो आओ
सोई रातों को जगा कर लायें
भूले वादों को सजा कर लायें
बिखरी यादों को जमा कर लायें
गुज़रे लम्हों को बुला कर लायें

पर
देखो,
रूठना तुम
देना नसीहत
कि
हो जाओगी लहूलुहान
कि ...

बीती बातों को उधेड़ा नहीं करते
सपनों की किरचों को बटोरा नहीं करते।
कि ...

रोशनी में अंधेरों को टटोला नहीं करते
पानी में लकीरों को उकेरा नहीं करते.